तेरा नाम
लफ़्ज़ अटक-अटकके आते है इन दिनों
ख़यालात बिखरतेसे जा रहे है
बदमाश बदली चिढ़ाती है तेरा नाम ले-लेके
दिलके दोशमें उलझसा जाता हूँ मैं तब..
तब वहीं तेरा नाम खुद एक नज़्म बनके चलता है मेरे साथ
सुलझाता है वह खयालोंके धागे, जो अस्तव्यस्त पडे रहते है किसी सुर्ख़ जगह..
ऐसी जगह, जहा ना सुरज होता है उपर ना पाँवोंतले ज़मीं
बस यहीं सोचके रह जाता हूँ मैं की –
यह किस नदीमें बहता चला जा रहा हूँ मैं,
ना हाथमें पतवार है, ना बहावको कोई दिशा
साथ है तो बस इक तेरे नामकी खुशबू
जो खींचके ले जा रही है दूर कहीं
शायद उस पार ख़ुदा होगा
शायद उस पार तुम होगी
या फिर शायद तुम दोनोंही होंगे उस पार
कहीं तुम दोनों एकही तो नहीं?
— © विक्रम श्रीराम एडके
[www.vikramedke.com]