नज़्म के अन्दर
नज़्म खोल के देखी है कभी?
मिसरें छील के देखें है?
होता है अन्दर इक दिल जावेदाँ
न सुनो तो डेड होता है, ठिठका सा
और सुनो तो झट से पकड लेता है उँगली
ले चलता है रूह की कफ़सके पार
कभी उस दिलके सँकरें रास्तें गुज़रोगे
तो अमुमन कुरेदें जाएँगे कुछ सटें-सटेंसे लम्हें
कुछ बहती यादें अटकी होंगी
कुछ भुलावे के बाईपास दिखेंगे
कम ही गुज़रना उनसे,
अटकाव पे ज़ोर लगा देना
तब शोर करेगा वह दिल
रास्तें खुल जाएँगे
इक पुल सा बन जाएगा तुम तक
मंज़िलें वहीं मिलेंगी!
— © विक्रम