ख़याल
कई दफ़ा खयाल, बयाँसे ज्यादा खुबसुरत होते हैं,
और हर इक बयाँ के पीछे होते हैं सैकडों मुर्दा ख़याल!
नज़्मोंकी तआरीफ करते हैं लोग, ख़यालोंके नआले कौन सुनता हैं?
फूटे अल्फ़ाज़, चीखते ख़यालोंसे ज्यादा भाते हैं शायद!!
ऐ मेरे ख़याल, ऐ मेरी कल्पना..
इक तुम्हींपे तो लिखता हूँ मैं नज़्में,
बयाँ करता हूँ तुम्हारा हुस्न, जो पकडमें नहीं आता,
फिसल जाता हैं..
सच कहता हूँ..
मेरी नज़्मोंसे कहीं ज्यादा खुबसूरत हो तुम, जँचती हैं वह तुमसे!
इक तुम्हाराही तो आसरा हैं उन्हें..
वरना नज़्मोंका क्या हैं..
उडते परीन्दे हैं महज, ना कोई ठिकाना – ना कोई आशियाँ..!
— © विक्रम.