पुराना ज़ख़्म
बडे झुलसे-झुलसेसे मौसम है
धधक रही है धूप और छाँवभी
ये तू है या फिर तेरे ख़यालोंकी तपिश,
तुम्हें सोचता हूँ तो जल जाता हूँ
अपनेही तापसे मैं गल जाता हूँ
कितने अँधियारे है काटें इक उजालेकी आस में
कितने सैय्यार निगल गया हूँ बस एकही साँस में
ये तू है या तेरे वजूदकी परछाई,
इक आहटहीसे बल खाता हूँ
डूबता सूरज हूँ ढल जाता हूँ
कितनी बार फूँके है यादोंके रिसालें
कितनी बार फिर उन्हें बनाया है
ये तू है या इन खँडहरोंसे गुज़रा झौंका कोई,
इक छुअनहीसे सील जाता हूँ
पुराना ज़ख़्म हूँ खिल जाता हूँ
तुम्हें सोचता हूँ तो जल जाता हूँ
— © विक्रम श्रीराम एडके.
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