ठहरा ठहरा सा दौर है

ठहरा ठहरा सा दौर है
भागते रहते है लोग
चकाचौंध रौशनी से ख़्वाब जलाए
फोन की आड में मुँह छिपाए
जाने किस से?
अफ़साने उग रहे है आज-कल बस
हक़ीकतों के कोंपले फूटते नहीं है
फकत खबरें गढ़ी जाती है यहाँ
और हम भी यकिन छेद के उँगली की नोंक पर
स्क्रोल कर देते है हर वारदात को
लाईक्स, शेअर और कमेंट्स का लहू
रिसता रहता है छेदों से, और फिर
मौत आती है हर रात, नीन्द नहीं आती
क़तरा कर हँसते है हम क़तरा भर
क़तरा भर बरसते है हम छितरा कर
दो क़तरों में सिमटा हुआ हमारा
ठहरा ठहरा सा दौर है

— © विक्रम श्रीराम एडके

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *