ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं..?

दिन आये रात आये, सदियाँ चाहे बीती जाये,
बुलबुले बने और फूटें, समंदर अडिग लहराता जाये..!
समंदर सत्य बुलबुला मिथ्या, ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं?
तू बनाये तू बिगाडे, ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं?
देवा, क्यूँ ना समझूँ मैं..?
सपनोंकी माला तोडके, तू नये मोती हैं जोडता..
मैं देखूँ टूटी माला, वो मोती क्यूँ ना देखता..!
मेरा सँवारना भी बिगाडना, ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं?
तेरा बिगाडना भी सँवारना, ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं?
देवा, क्यूँ ना समझूँ मैं..?
मैं राहके पत्थरोंपर शीश जो नमाता जाऊँ,
क्यूँ इन्सानी चेहरोंमें मैं सूरत तेरी ना देख पाऊँ..!
राह, राही, मंझिल तूही, ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं?
खुद, खुदतक चलके, खुदको हैं पाना, ये बात क्यूँ ना समझूँ मैं?
देवा, क्यूँ ना समझूँ मैं..?
– © विक्रम.
(अहमदनगर येथील श्रीविशालगणपती मंदिरात सुचलेली कविता)

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