गुलज़ार
नज़्म पूरे जोबन पे थी
नूर के कोहरे बहते थे
इश्क़ तो तब भी था मगर
वह और जगह रहते थे
चलते-बहते एक रात
सय्यार टकराया चाँद से
नूर मिला नज़्म को जा कर
अब्रों की दिवार फाँद के
सागर डोल गया था उस दम
तारे सारे उफनने लगे थे
दूर कहीं कोहसारों में
ख़्वाब पकने बनने लगे थे
वक़्त थम गया था उस वक़्त
नज़्म-ओ-नूर का दीदार हुआ
इक हलचल सी हुई उजालों में
इक नाम उठा ‘गुलज़ार’ हुआ
— © विक्रम श्रीराम एडके
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