मौन के महाद्वीप
निशा थी
चन्द्रमा था
झील के तीर पर
तुम थी, मैं था
किन्तु दोनों के मध्य
तब भी थे मौन के द्वीप
कुछ नि:श्वासों की दूरी पर
और कुछ शब्दों के समीप
वे द्वीप यदि लाँघ पाते
संकोच के बाँध यदि तोड पाते
कथा कुछ अन्य मोड लेती
कविता विरह की उँगली छोड देती
विचारों-विचारों में रात्रि ढल गयी
अधरों तक आयी बात, टल गयी
निशा, चन्द्रमा तथा झील
तीनों अब भी वहीं है
नहीं है तो केवल मैं और तुम
या है कदाचित किसी और समयधारा में
इस आयाम में तो मौन के द्वीप सम्भवत:
अब महाद्वीप बन गए है
— © विक्रम श्रीराम एडके