खोल दूँ

धूप बँधी है पाँवों से
छाँव में खुद को घोल लूँ
सदियों से बंद हूँ किवाड़ों सी
आज अपने आप को खोल दूँ

मौन की परछाईयाँ जब चुभने लगती है
सिसकियों से चिंगारियाँ उगने लगती है
और रेंग-रेंग कर समय निगोड़ा आँखों में भर आता है
आता है तो फिर जन्मों का वह सूद ले के ही जाता है
बहते समय को अब के लेकिन भौहों से ही मोड़ दूँ
सदियों से बंद हूँ किवाड़ों सी
आज अपने आप को खोल दूँ

— © विक्रम श्रीराम एडके
[एक नारी का संघर्ष व्यक्त करने वाला यह गीत, एक हिंदी शॉर्टफिल्म के लिए लिखा था। किन्तु उन्हों ने किसी कारणवश फिल्म की भाषा ही बदल दी। तो यह गाना रिकार्ड ही ना हो सका। इस लिए यह है आज के #रिजैक्टेड_लिरिक्स]

चित्र श्रेय: मूल चित्रकार को

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