लाम नहीं मिलता
फ़ुर्क़तकी रातका रंग देखा है कभी?
काला काला सा होता है.. गाढा.. स्याह..
फिर नदी बन जाती है उसकी
और बहता रहता है उसमें, जबींपे काला टीका लगाया नब़ी,
चाँद थामें एक हाथमें, तो दूजेमें जलता दिल!
जलता दिल, जो चाँदसे कहीं ज़्यादा रौशनी देता है..
और सुरजसे कहीं ज़्यादा आँच!
नब़ी ताँकता रहता है उस उजालेमें हरइक मोड़
की इस दर्यामें कोई तो मोड़ होगा, जो फ़ारसीका तालिब हो,
जो पहचानता हो लामको
लाम नहीं मिलता,
दिल नहीं बुझता,
चाँद नहीं ढलता,
रात फ़ुर्क़तकी, और गाढ़ी होती चली जाती है..!
— © Vikram Edke
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