सावरकरकृत अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक एकता

वीर सावरकर जी की जीवनी अद्भुत, अदम्य साहसों से लबालब भरी हुई है । नेता, संगठक, क्रांतिकारी, इतिहासकार, राजनीतीज्ञ, युद्धनीतीज्ञ, वक्ता, समाज सुधारक, लेखक, लेखक के रूप में भी नाटककार, उपन्यासकार, कथाकार, कवि, कवि के रूप में भी खंडकाव्यकार, दीर्घकाव्यकार, महाकवि, शाहीर; और न जाने कितने ही पहलू मात्र एक ही व्यक्ति के है, इस पर कदाचित आने वाली पीढियाँ विश्वास भी न करें । सरल तरह से देखें तो उन के जीवन के जन्म से ले कर लंडन जाने तक का काल विद्यार्थिदशा, लंडन में क्रांतिकारी, अंदमान से ले कर रत्नागिरी तक बंदी, रत्नागिरी से ले कर बिनाशर्त मुक्तता तक समाज सुधारक, मुक्तता से ले तर स्वातंत्र्यप्राप्ती तक राजनीतीज्ञ और फिर स्वातंत्र्यप्राप्ती से ले कर आत्मार्पण तक वार्धक्य ऐसे विभाग पडते है । किंतु कोई भी व्यक्ति ऐसे विभागश: जीता है क्या? उदाहरण के तौर पर देखे, तो सावरकर जी ने १९३७ के पश्चात राजनीती में खुल कर भाग लिया । किंतु क्या उन के क्रांतिकार्य में अंग्रेजों को हराने की राजनीती नहीं थी? यहीं नियम लागू होता है इस लेख के विषय यानी ‘अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक एकता’ को । आम तौर पे तो यह विषय केवल सावरकर जी के रत्नागिरी में किए गए कार्य से ही संबद्ध लगता है । और यह सत्य भी है कि, रत्नागिरी में स्थलबद्धता की अवस्था में वे इस कार्य में सर्वाधिक निमग्न रहे । किंतु अगर आप सावरकर जी के चरित्र का बारीकी से अवलोकन करे, तो पाएंगे कि, यह दोनों विषय उन के समूचे जीवन की ही कथा है ।

मराठी भाषा में एक मुहावरा है, ‘बाळाचे पाय पाळण्यात दिसतात’ । इस का शब्दार्थ होता है, बच्चे के पाँव पालने में दिखते है । किंतु इस का भावार्थ यह है कि, मनुष्य जीवन में आगे चल कर क्या करने वाला है इस की झलक बचपन से ही दिखने लगती है । बात सन १९०२ की है । उन दिनों मुंबई के ‘हिंदु युनियन क्लब’ की ‘हेमंत व्याख्यानमाला समिती’ हुआ करती थी । उन्हें ने एक काव्य स्पर्धा का आयोजन किया था । विषय था ‘बालविधवा दु:स्थितीकथन’ । सावरकर जी की आयु मात्र १९ वर्ष की थी । आज की भाषा में कहा जाए तो टीनेज । किंतु इस छोटी सी आयु में भी उन्होंने इस विषय पर जो कविता लिखी, वह थी १०२ पंक्तियों की कविता (समग्र सावरकर वाङ्मय, खंड ७, आवृत्ति वर्ष १९९३, पृ. २७) जिसे उस वर्ष का प्रथम पारितोषिक प्राप्त हुआ था । तात्पर्य यह कि, सावरकर बचपन से ही सामाजिक विषयों के प्रति जागृत एवं अभ्यासरत थे । उन का समाज के, तथा दीन-दुखियों के प्रति संवेदना से भरा यह दृष्टीकोन स्थलबद्धता से छूटने के बाद भी स्पष्ट रूप से दिखता है । सावरकर जी कि मुक्तता १९३७ में हुई । तत्पश्चात उन्हों ने हिंदुमहासभा पार्टी से जो राजनीती की, उस का उद्देश्य उन्हीं के रचे एक श्लोक में झलकता है । वे लिखते है,
‘राष्ट्रस्वतंत्रता ध्येयं यथा साध्यं च साधनम् ।
अभ्युत्थानाय हिंदुनामयं पक्ष: प्रवर्तित: ।।’
यानी सावरकर जी का उद्देश्य राष्ट्र की स्वतंत्रता के साथ ही साथ हिंदुओं का अभ्युत्थान भी था । इस अभ्युत्थान के मायने भी जातिपातिविरहित, सबल व सशक्त हिंदु समाज का निर्माण ही थे । सावरकर लिखते है कि, ‘जातिभेद के निवारण हेतु मैं विद्यार्थीदशा से ही प्रकट रूप से प्रयत्नरत था । महाविद्यालय में भी मेरा वर्तन उसी ओर रहा । आगे चल के अंदमान में मैंने इस विषय पर जो भी चिंतन किया, उस का व्यावहारिक आचरण कर के मैंने सैंकडों भेदमूलक दुष्ट धारणाओं का उच्चाटन किया है (स. सा. वा. खंड ३, आवृत्ति वर्ष १९६४, पृ. ६४२) ।

जैसे कि उपर लिखा है, यह सत्य है कि सावरकरकृत अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक एकता का कार्य सर्वाधिक रत्नागिरी से ही किया । किंतु ऐसी क्या बात हुई की उन्हें इस कार्य में स्वयं को पुरज़ोर झोंकना पडा? इस प्रश्न का उत्तर है अंदमान! प्राकृतिक सौंदर्य से सराबोर इस द्वीपकल्प पर अंग्रेज़ों ने सैल्युलर जेल नामक दैत्याकार कारागृह बनाया था । इस का एक भयकारी नाम कालापानी भी है । जब अंग्रेज़ों ने सावरकर जी को २५ अधिक २५ वर्ष यानी कुल ५० वर्षों का अमानुष आजीवन कारावास घोषित किया, तब उन की रवानगी इसी कालापानी में हुई (स्वातंत्र्यवीर सावरकर चरित्र, पृ. ३४२ , लेखक शि. ल. करंदीकर, आवृत्ति वर्ष २०११) । यद्यपि आज अंदमान, वीर सावरकर जी के अस्तित्व से पुनीत क्रांतितीर्थ कहलाता है, उन दिनों वह खौफ़ का पर्यायवाची ही कहलाता था । वहाँ सावरकर जी ने क्या देखा? उन्हों ने देखा कि, अनेकों कारणवश दंडित हिंदु बंदीयों कि संख्या यहाँ सर्वाधिक है, किंतु उन पर हुकूमत चलाने वाले वॉर्डन्स अधिकांश अहिंदु है । संख्याबल होते हुए भी ऐसा क्यूँ, इस प्रश्न का उत्तर उन्हें मिला हिंदुओं की जातिव्यवस्था में । संख्याबल होते हुए भी हिंदु आपस में ही बँटे हुए थे । इस त्रुटी का लाभ उठा कर अहिंदु न केवल उन पर हुकूमत चलाते थे, अपितु अज्ञानी बंदीयों का धर्मांतरण भी करते थे । इस शोचनीय अवस्था का एक उदाहरण वाचकों के समक्ष रखना बिलकुल भी अप्रस्तुत न होगा ।

यह घटना स्वयं सावरकर जी ने स्वयं ही अपने बंदीवास के बारे में लिखी गयी जीवनी, ‘माझी जन्मठेप’ में लिखी है । अंदमान में कोयले से लदे हुए जहाज़ आया करते थे । बोरियाँ उतारने का काम बंदीयों को ही करना पडता था । इस काम पर लगे बंदीयों को समय बचाने के लिए खाना नहीं दिया जाता था, बल्कि दो-चार मुठ्ठी भर चने दिए जाते थे । तो हुआ यूँ कि, एक दिन जब भोजन का समय हुआ तो अहिंदु बंदी जल्दी से भाग कर अपनी चने की बोरियों की तरफ़ गए । और उन में से कुछ लोगों ने हिंदुओं के लिए सुनिश्चित बोरियों से भी चने खाने शुरू कर दिए । यह जब हिंदुओं ने देखा तो धर्म भ्रष्ट होने के डर से किसी भी हिंदु ने चनों को हाथ तक न लगाया । उस दिन उन्हें फ़ांका पडा । अहिंदु बंदीयों को रोज़ के मुक़ाबले अधिक खाना मिल गया । अब तो यह प्रतिदिन की ही बात हो गयी । रोज़ हिंदु कैदी काम कर के, थक-हार के खाने कि तरफ़ जाते और रोज़ वह दृश्य देख कर उन्हें भूखे पेट ही रहना पडता । उन्हों ने जब अधिकारीयों से शिकायत की तो वह लोग भी उन पर हँसने लगे । फिर वह अपने बडे बाबू यानी सावरकर जी के पास आए । सावरकर जी ने उन्हें एक तरकीब बताई । दूसरे दिन जब खाने का समय हुआ तो हिंदु बंदी सब से पहले भाग के बोरियों की ओर गए और अपनी तो अपनी अहिंदुओं की बोरियों से भी चने खाने लगे । जब झगडे की नौबत आयी, तो हिंदुओं ने सावरकर जी ने बताई बात उन को दो टूक सुना डाली की, यदि तुम्हारे पहले छूने से यह चने अहिंदु होते है, तो हमारे छूने से अब यह हिंदु हो गए है । बात ज़मादारों तक पहुँची तो वे हँसने लगे, ठीक वैसे ही जैसे वे हिंदुओं पर हँसे थे । तब कहीं जा कर उन्हें सावरकर जी द्वारा पढाया पाठ ठीक से समझा कि, धर्म का स्थान व्यक्ति का पेट नहीं अपितु उस का ह्रदय होता है ।

इस प्रकार एक एक कर के हिंदुओं को जातिवाद की घिनौनी रूढी से बाहर निकालने का उपक्रम चल रहा था । वह भी अंदमान के निर्मम कारागार में जहाँ के हालातों के सामने नर्क भी स्वर्ग लगे । सावरकर दिन भर कोलू चला कर तेल निकालते, नारियल की रस्सियाँ बुनते, जरा-जरा सी बात पे एकांतवास तथा डंडाबेडी जैसे नृशंस दंड भोगते और इतना होते हुए भी वे शुद्धीयज्ञ चलाते, बंदीयों को पढाते, कविताएँ लिखते और जातिवाद की समस्या पर चिंतन करते रहते । हमारे और आप के आरामदायक जीवन से कहीं परे था यह व्रत । उसी चिंतन के फलस्वरूप सावरकर जी के समक्ष उजागर हुई एक बात । वह यह की, मुख्यभूमि हिंदुस्थान भी तो अंदमान का ही बडा स्वरूप है । वह भी तो अंग्रेजों द्वारा बनाया एक बंदीगृह ही है, वहाँ भी तो हिंदुओं कि बहुसंख्या होते हुए भी सदियों से मुठ्ठीभर अहिंदु राज करते आ रहे है और उस का भी तो कारण हिंदु समाज को लगा जातिवाद का रोग ही तो है । जिस आग्रह, तप, निश्चय एवं दृढता के साथ सावरकर जी ने अंदमान के कारागृह से जातिवाद मिटाया, वहीं काम मुख्यभूमी में करने की आवश्यकता थी । और यह अवसर उन्हें मिला रत्नागिरी की स्थलबद्धता में । मानों अंदमान जातिवाद मिटाने का पाठ्यक्रम हो और रत्नागिरी प्रयोगशाला ।

क्षेत्र जितना बडा होता है, चुनौतियाँ भी उतनी ही बडी होती है । वैसे देखा जाए तो जातिव्यवस्था हिंदु धर्म का मूलभूत अंग नहीं है । यह मध्ययुग की देन है । हिंदु तो आरंभ से ही वर्णव्यवस्था मानते आ रहे है, जो जन्म से नहीं बल्कि व्यक्ती के गुण व कर्मों से जुडी हुई है (गीता. ४/१३) । किंतु बर्बर विदेशी आक्रमणों के बाद से वर्णव्यवस्था का भ्रष्ट होना शुरू हुआ जो अंततः जातिव्यवस्था में परिवर्तित हुआ । यह व्यवस्था सदियों से चलन में थी । क्या सवर्ण क्या विवर्ण, दोनों ही प्रकार के लोग इसे मानते थे । ऐसे में सावरकर जी का कहना कि यह व्यवस्था हानिकारक है, का परिणाम भी वैसे ही शून्य होना था जैसे अनेकों प्रामाणिक सुधारकों की बातों का न्यूनाधिक हुआ । लेकिन सावरकर अपने प्रतिपादन के बारे में न केवल आग्रही थे, अपितु अपनी बात मनवाने के लिए हर तरह के सकारात्मक हतकंडे अपनाने से भी नहीं चूकने वाले थे । उपयुक्ततावाद वीर सावरकर जी का विशेष गुण था । उन्हों ने पहले तो जातिवाद के प्रश्न के छोटे छोटे टुकडे किए की, आखिर जातिवाद किस तरह से हिंदु समाज को प्रभावित करता है । यह एक बिल्कुल ही नए तरह की पहल थी । इसे ही आधुनिक भाषा में प्रौब्लेम आईडेंटिफ़िकेशन कहते है । इस खोज में सावरकर जी ने पाया कि, जातिवाद की समस्या असल में ७ प्रकार से प्रभाव डालती है । वीर सावरकर जी ने इन्हें नाम दिया, ‘सात स्वदेशीय बेड़ीयाँ’ (स. सा. वा. खंड ९, जात्युच्छेदक निबंध, आवृत्ति वर्ष १९९३, पृ. ६४) । यह बेड़ीयाँ थी रोटीबंदी, बेटीबंदी, स्पर्शबंदी, व्यवसाय बंदी, सिंधुबंदी, वेदोक्तबंदी तथा शुद्धीबंदी । वीर सावरकर जी का मानना था कि यदि यह सात शृंखलाएँ तोड दी जाए, तो निश्चय ही जातिप्रथाविरहित सशक्त समाज निर्माण होगा ।

रत्नागिरी आज भी एक छोटा सा शहर है । आज से करीब सौ वर्ष पहले यानी १९२४ के समय में तो वह और भी छोटा गाँव था । उन दिनों पूरा देश आवश्यक और अनावश्यक दोनों ही प्रकार के रूढीवाद के घेरे में था । कोंकण की भूमी रत्नागिरी भी रूढीप्रिय थी । वीर सावरकर ने क्या किया? उन्हों ने जातिवाद के विरुद्ध तीन तरफा मोर्चा खोला । वे बडे ही प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे तो जगह-जगहों से लोग उन्हें भाषणों के के लिए बुलाते थे । सावरकर उन भाषणों में जातिवाद की रूढ़ी से होने वाली हानि बताते थे । वे एक सम्माननीय व्यक्तित्व होने के साथ ही अत्युच्च कोटी के वक्ता भी थे, तो नि:संशय उन की वाणी का प्रभाव पडता । यह तो हुआ एक मोर्चा । दूसरे, वे कई तरह के नियतकालिकों में जातिव्यवस्था पर हल्ला बोलने वाले लेख लिखते थे । उनके यह लेख तथा उन के भाषण आप को उन की पुस्तकें ‘विज्ञाननिष्ठ निबंध’, ‘जात्युच्छेदक निबंध’, ‘सामाजिक भाषणे’, ‘क्ष किरणे’ आदी में समूल पढने को मिलते है । वीर सावरकर जी लोकप्रिय माध्यमों कि ताकत भलीभाँति जानते थे । इसिलिए उन्होंने इस विषय पर दो उपन्यास (‘मला काय त्याचे’ तथा ‘काळे पाणी’), ‘उ:शाप’ आदी नाटक, तथा कई सारी कथाएँ व कविताएँ लिखी । एक तरह से देखा जाए तो वे अपने विचारों के प्रति समाज की मनोभूमिका तैयार कर रहे थे । क्यूँ कि तिसरा मोर्चा जो था, वह सब से कठिन था, प्रत्यक्ष कार्य ।

प्रत्यक्ष कार्य के तीन भाग किए जा सकते है । मन:परिवर्तन, वैधानिक मार्ग और संघर्ष । सावरकर जी ने प्रसंग व परिस्थिती के अनुसार तीनों मार्गों का अवलंबन किया दिखाई पडता है (सावरकरांच्या समाजक्रांतीचे अंतरंग, लेखक शेषराव मोरे. आवृत्ति वर्ष २०१५, पृ. १०७) । जिन दिनों अस्पृश्यों की परछाई मात्र पडने से ही धर्म भ्रष्ट हुआ माना जाता था, यदि उन का स्पर्श हो भी गया तो लोग शुद्धी हेतू सचैल यानी कपडों के साथ स्नान कर लिया करते थे, इतना ही नहीं बल्कि घरों में किसी अस्पृश्य जाति का नाम लेना भी पाप समझा जाता था (तत्रोक्त, पृ १२१), उन दिनों अस्पृश्यता निवारण का कार्य सावरकर जी के लिए कितना कठिन रहा होगा, इस की मात्र कल्पना ही की जा सकती है । और देखिए, यह रवैया भी कोई एक तरफा नहीं था । सदियों से इसी सामाजिक व्यवस्था में पले-बढें, रहे अस्पृश्यों को भी यही एक मात्र जीवनमार्ग लगता था । उन्हें भी इस में कुछ गलत नहीं लगता था । जब शृंखलाओं से परे कोई विश्व कल्पना में ना हो, तब शृंखलाएँ तोडना और भी कठिन हो जाता है ।

सावरकर जानते थे कि, स्पृश्य बस्ती में तो कोई अस्पृश्य अपने आप आने से रहा । तो वे खुद अस्पृश्यों की बस्तीयों में जाने लगे । देखिए, काम कितना मुश्किल है, जब सावरकर और उन के साथी अस्पृश्य बस्तीयों में जाते तो सारे बस्तीवाले एक एक कर के दरवाज़े बंद कर के, कुंडी-वुंडी लगा के अंदर छिप जाते थे । क्यूँ? क्यूँ कि उन्हें लगता था कि यह लोग, हमारा धर्म भ्रष्ट करने आए है । बार बार पुकारने पर भी कोई बाहर न आता । उल्टे, अंदर से ही जवाब देते कि, घर में कोई नहीं है (तत्रोक्त, पृ. १२१) । सावरकर जानते थे कि शुरुआत में ऐसा ही होगा । सामान्य हिंदु का मन आकर्षित करने वाली कोई एक चीज़ हम सोचे तो वह है, भजन-किर्तन । सावरकर और उन के साथी उस बस्ती के बीचोबीच जा कर प्रभु का भजन करने लगते । कई दिनों के अथक परिश्रम के पश्चात, किवाडों, खिडकियों से टुकूर-टुकूर देखने वाले लोग एक-एक कर के बाहर आने लगे, सावरकर और उन के साथियों से मिलने-जुलने लगे । यह तो केवल शुरुआत थी । अब अगला पडाव थी स्पृश्यों कि बस्तीयाँ । सावरकर जी के व्याख्यान तथा अन्य कार्यक्रमों में वे अस्पृश्यों को साथ ले आते, स्पृश्य एवं अस्पृश्य दोनों को ही साथ बैठने का आग्रह करते (तत्रोक्त, १२२) । यह तो और भी कठिन बात थी । स्पृश्य अस्पृश्यों को अपने साथ बिठाना नहीं चाहते थे और तो और अस्पृश्य भी स्पृश्यों के साथ बैठना नही चाहते थे । सब से विशेष बात तो यह थी की, जिन अस्पृश्यों को रूढीयाँ स्पृश्यों के साथ बैठने की अनुज्ञा न दे कर उन पर सामाजिक अन्याय करती थी, वे खुद भी अपने से तथाकथित निम्न स्तर की जातियों को अपने साथ बिठाने के लिए तैयार नहीं थे । यहीं स्थिती पाठशालाओं में भी थी । सावरकर सनातनियों से कहते थे कि, ‘हम कुत्ता या बिल्ली पालते है । उस से प्रेम भी करते है । इतना कि वह पशु हमारी रसोई में घूमता है, हमारे साथ खाना खाता है । वहीं हम लोग एक मनुष्य की परछाई मात्र से ही दूर भागते है । हमारी ही तरह, हाड-मांस का बना मनुष्य, हमारा ही धर्मबंधु, लेकिन उस के स्पर्श को पाप मानते है । और वहीं मनुष्य अगर हमारी ही भूल के कारण अगर परधर्म में चला गया, तो एक ही झटके में हम उसे ‘मेरा भाई’ बोल के गले से लगाने में भी नहीं हिचकिचाते । हमारे ही जैसे मनुष्य को पशु से भी न्यूनतर समझना और उस के धर्म परिवर्तन करते ही उसे गले लगाना, यह कहा का न्याय है’? वहीं वे अस्पृश्यों को भी ढाढस बँधा कर कहते थे कि (स्वातंत्र्यवीर सावरकर, लेखक धनंजय कीर, मराठी अनुवाद द. पां. खांबेटे, आवृत्ति वर्ष २००८, पृ. २०१), ‘इस क्षण में दिखाई दुर्बलता सवर्णों की दुष्टता से भी अधिक बुरी होगी । कल्याण का मार्ग कष्टों से ही हो कर जाता है । अधिकार माँगने की इस घडी में पीछे हटने की भूल मत करो । याद रखो कि तुम भी मनुष्य हो और मनुष्य कि तरह ही पौरुष प्रकट करो । जब कभी तुम सार्वजनिक मार्ग से गुज़रो और कोई तुम से दूर हटने को कहे, तो उस से कहो कि ‘यह रास्ता कोई तुम्हारे बापदादाओं की जागीर नहीं, जो जिसे चाहे उसे दूर हटने के लिए कहे’ । अपने व्यवसाय किसी के भी दबाव से मत छोडो । उल्टा, उन में सुधारणाएँ करो । कोई भी व्यवसाय श्रेष्ठ या कनिष्ठ नहीं होता । स्वच्छता से भरा जीवन जियो । नशे से दूर रहो । अपने मात-पिता, संत और वंश को कभी भी नीचा मत समझो । दोषों का त्याग करो, शिक्षा प्राप्त करो, संघर्ष करो और जातिवाद से उपर उठ कर अपने मानवी अधिकार प्राप्त करो । कोई व्यक्ति तथाकथित रूप से तुम से भी निचली जाति का हो, तो उस से भी दया भरा, समता भरा ही व्यवहार रखो ।’

हिंदु धर्म के जो अनेक स्तंभ है, उन में से एक स्तंभ है मंदिर । मंदिर सालों से सार्वजनिक स्तर पर एकात्मता के केंद्र के रूप में दायित्व निभाते आ रहे है । किंतु क्या उन दिनों सभी मंदिर सभी जातियों के लिए खुले थे? उत्तर है, नहीं । सावरकर जी ने इस विषय पर काम करने की ठानी । क्यूँ कि अगर मंदिरों में सभी जातियों का स्वीकार होने लगता, तो जातिवाद का एक प्रमुख क़िला यूँ ही ढह जाता । लेकिन मंदिर जैसे सामाजिक एकता का केंद्र थे, वैसे ही विभिन्न जातियों के लिए उन की आस्था तथा अस्मिता का भी प्रतीक थे । इस लिए यह काम भी उतना सरल नहीं था । सावरकर जी ने पहले कदम के रूप में वह उत्सव चुना जो अपने आप में ही सामाजिक एकात्मता की धरोहर था, यानी सार्वजनिक गणेशोत्सव. महाराष्ट्र के घर घर में गणेश चतुर्थी से ले कर अनंत चतुर्दशी तक गणेश जी के पूजन की प्रथा है । कुछ जगहों पर यह उत्सव डेढ़ दिन चलता है, कहीं पाँच, कहीं सात, तो कहीं पूरे दस । गणेशोत्सव महाराष्ट्र में सार्वजनिक स्वरूप प्राप्त कर चुका था । गाँव, कस्बों, शहरों में लोग सार्वजनिक तौर पे गणेशजी की प्रतिष्ठापना करते, जिसे मराठी में ‘मंडल’ कहते है । लेकिन उन दिनों यह मंडल भी जातिगत थे तथा उन में भी भेदभाव हुआ करता था । सन १९२४ के गणेशोत्सव के दौरान रत्नागिरी में प्लेग के प्रादुर्भाव के कारण सावरकर कुछ दिनों के लिए नाशिक गए थे । तब वहाँ गणेश जी के विसर्जन के समय शोभायात्रा में पहला मान किस मंडल को दिया जाए यह प्रश्न उपस्थित हुआ । जब लोग सावरकर जी के पास यह समस्या ले कर आए, तो उन्हों ने अग्रभाग में रहने का मान बिना किसी हिचकिचाहट के एक अस्पृश्य मंडल को सौंपा । यह एक ऐतिहासिक, क्रांतिकारी घटना थी ऐसा वृत्तांकन नाशिक के ‘स्वातंत्र्य’ नामक पत्र ने १८/०९/१९२४ में किया (सावरकरांच्या समाजक्रांतीचे अंतरंग, पृ. १५३) । सावरकर जी के ही प्रयत्नों से उस साल कई अस्पृश्यों के मंडल गठित हुए । उन्हीं में से एक जगह भीड से खचाखच भरे कार्यक्रम में भाषण करते समय वीर सावरकर बोले, ‘मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में अस्पृश्यता की रूढी का विनाश होते हुए मैं अपनी आँखों से देख सकूँगा । मैं चाहता हूँ कि मेरी मृत्यू के पश्चात मुझे काँधा देने के लिए विभिन्न जातियों के लोग एक हो कर आए और मुझे अग्नि दे, तभी मेरी आत्मा को समाधान मिलेगा ।’ यह सुनते ही श्रोताओं की आँखों से आँसूओं की धाराएँ छलक पडी (तत्रोक्त, पृ. १५३) । अगले वर्ष सावरकर जी ने यही क्रम रत्नागिरी में भी दोहराया । इतना ही नहीं, उन्हों ने एक पृर्वास्पृश्यों का वाद्यवृंद भी गठित किया (जो शीघ्र ही सभी जातियों के एकत्रित वाद्यवृंद में परिवर्तित हो गया ।) और गणेश जी के समक्ष पूर्वास्पृश्यों द्वारा बीडा-सुपारी (मराठी में पान-सुपारी । यहाँ पान का बीडा वगैरह केवल निमित्त मात्र होता है, असल उद्देश्य सामाजिक मेलजोल बढाना होता है ।) का समारंभ आयोजित करने की भी प्रथा आरंभ की । इस बारे में वर्णन तब के बलवंत, बकुल, सत्यशोधक आदी पत्रिकाओं में विस्तारपूर्वक पढने को मिलते है । धीरे धीरे इस बीडा-सुपारी के कार्यक्रम में सैंकडों स्पृश्य भी सहभागी होने लगे (तत्रोक्त, १५४) ।

अब समय था एक कदम और बढाने का । १९२५ के अप्रैल में रत्नागिरी के समीप एक छोटे से गाँव शिरगाँव में महादेव लक्ष्मण गुरव नाम के एक सज्जन ने हनुमान जी का मंदिर बनाया । वे चाहते थे कि प्रतिष्ठापना में सावरकर जी भी उपस्थित रहे । यहाँ गौर करने योग्य बात यह है कि, सावरकर भले ही हिंदुत्ववादी थे किंतु वे किसी भी तरह के कर्मकांड के विरुद्ध भी थे । ऐसे में आज के समय का कोई तथाकथित विद्वान क्या करता? मना कर देता कि मुझे यह सब पसंद नहीं, शायद यह भी कहता कि तुम भी यह कर्मकांड मत करो । सावरकर जी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया । बल्कि वे उस समारोह में गए । किंतु जाने से पहले उन्हों ने गुरव जी के सामने एक शर्त रखी । शर्त यह थी कि, मंदिर का जो प्रदक्षिणा मार्ग है, वह अस्पृश्यों के लिए भी खुला हो । उन्हों ने गुरव जी को अस्पृश्यता के विरुद्ध अपनी भूमिका बताई और परिणाम यह हुआ कि, गुरव जी तुरंत मान भी गए । इतना ही नहीं वे प्राणप्रतिष्ठा के समय पूर्वास्पृश्यों को भजन करने वालों के साथ संमिश्र बिठाने को भी तैयार हो गए (तत्रोक्त, पृ. १५५) । यह अंतर है सावरकर और कुछ तथाकथित सुधारकों में । जहाँ सावरकर समाज के लाभ को देखते हुए अपने व्यक्तिगत मतों को दूर रखने के लिए भी तैयार थे, वहीं आज-कल के कुछ आधुनिक सुधारणावादी अपने व्यक्तिगत मतों को समूचे समाज पर थोंपना चाहते है, और यहीं कारण है कि, उन्हें समाज में कभी स्वीकृति नहीं मिलती । सावरकर भले ही हिंदुत्ववादी थे, और थे क्या, हिंदुत्व की राजकीय मीमांसा पहली बार उन्हों ने ही तो अपने प्रबंध ‘हिंदुत्व’ (१९२३) में की है । किंतु वे हिंदुस्थान में रहने वाले, हिंदुस्थान से प्रेम करने वाले सभी पंथों का भला ही चाहते थे । उन के लेख, खास कर के ‘पोथिनिष्ठेची बाधा’ (मनोहर, जुन १९३५) इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण है । वहीं आज कल कुछ लोग समाजसुधारणा का अर्थ किसी एक धर्म को ही कोसना मात्र निकालते है । सावरकर जी का यही समष्टिवाद हल्दी-कुंकुम समारोह में भी दिखता है । वे स्वयं कदाचित इस समारोह को नहीं भी मानते होंगे, लेकिन उन्हें इस प्रथा में स्पृश्यास्पृश्य महिलाओं को एक करने का कारण दिखा तो उन्हों ने इन समारोहों को पूरे मन से प्रोत्साहित किया, और फलस्वरूप महिलाओं के मन से भी अस्पृश्यता की रूढी का उच्चाटन करने की ओर कदम बढाया (सावरकरांच्या समाजक्रांतीचे अंतरंग, पृ. १४२) ।

धर्म हमेशा से ही नाज़ुक मामला रहा है । इसी लिए सावरकर भी उतना ही नाज़ुक एवं कुशल तरीके से व्यवहार कर रहे थे । धीरे धीरे कर के उन्हों ने पूर्वास्पृश्यों को पहले तो प्रदक्षिणा मार्ग तक जाने की अनुज्ञा दिलायी । फिर उस अनुज्ञा का दायरा पगडंडीयों तक बढाया । फिर सभामंडप । और अंततः गर्भगृह तक (१३/०९/१९२९) वे पूर्वास्पृश्यों को ले गए । धीरे धीरे कर के मंदिर में संमिश्र जाना आम बात हो गयी । १९३० में तो एक पूर्वास्पृश्य ने गणेश जी के समक्ष गायत्री मंत्र का जाप भी किया । इस घटना का वर्णन टाईम्स ऑफ इंडिया सहित अन्य कई वृत्तपत्रों ने किया था (रत्नागिरी हिंदुसभेचे प्रतिवृत्त, खंड २, १९३७) ।

रत्नागिरी में एक सज्जन रहते थे, भागोजीसेठ कीर । शिवभक्त थे । किंतु जाति के कारण शिवालय नहीं जा सकते थे । धनि थे, तो खुद का ही शिवालय बनवा लिया, भागेश्वर मंदिर । सावरकर जी को मानते थे तो उन्हें यह घटना सुनाई । सावरकर जी ने पूछा कि, ‘आप धनवान है सो आपने अपने लिए मंदिर बनवा लिया । किंतु उन सहस्रावधी निष्कांचन पूर्वास्पृश्य भक्तों का क्या’? भागोजीसेठ सोच में पड गए । और तब सावरकर जी के विचारों से प्रेरित हो कर उन्हों ने बनवाया, पतित-पावन मंदिर (२२/०२/१९३१) । मंदिर के शिलान्यास समारोह में (१०/०३/१९२९) सावरकर जी ने मंदिर निर्माण की भूमिका बताई, कि इस मंदिर में कोई भी श्रद्धावान् हिंदु स्वच्छ तन, मन से बेरोकटोक आ सकेगा, पूजा कर सकेगा । इस मंदिर का पुजारी कोई भी ज्ञानी हिंदु बन सकेगा (स. सा. वा. खंड ९, आवृत्ति वर्ष १९९३, सामाजिक भाषणे, पृ. ९) । सभी हिंदुओं को पूजा, प्रार्थना का समान रूप से अधिकार देने वाला यह मंदिर आज भी प्रसिद्ध है । इसी मंदिर की प्रतिष्ठापना के समय की एक घटना न केवल पथदर्शी है, अपितु सावरकर जी की अपने उद्देश्य के प्रति प्रामाणिकता का विलोभनीय दर्शन भी कराती है । भागोजीसेठ चाहते थे कि, मूर्ति की प्रतिष्ठापना वेदोक्त पद्धति से हो । काशी से ब्राह्मण भी बुलाए गए । उन्हें बुलाते समय ही कल्पना दी गयी थी । किंतु वे ऐन समय पर मुकर गए कि, वेदोक्त का अधिकार अन्य जातियों को नहीं है । मुहूर्त निकला जा रहा था । शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटी, भागोजीसेठ आदि सभी तैयार हो गए की चलो वेदोक्त नहीं तो पुराणोक्त पद्धति से ही सही । किंतु सावरकर जी का क्रोध फूट पडा । वे भागोजीसेठ से बोले, ‘सेठजी मंदिर आप का, आप मालिक है, सो अंततः आप जो कहे वह ही होगा । किंतु अगर सदियों से चली आ रही यह भेदभाव की शृंखला नहीं तोड सके, फिर इस मंदिर की आवश्यकता ही क्या रही? पुरानी ही प्रथाएँ चलानी है तो पुराने मंदिर क्या कम है संख्या में, जो और एक नया बना रहे है? नया मंदिर नई पहल है । यह अगर आप को स्वीकार्य नहीं तो कृपया मुझे छोड दीजिए । किंतु अगर आप अडिग रहते है, तो इस मंदिर में वेदोक्त प्रतिष्ठापना का दायित्व मेरा ।’ इतना कहते ही सावरकर उन द्विजों की ओर मुड कर बोले, ‘हम ने आप को पत्र भेजा था, उस में स्पष्ट रूप से लिखा था कि वेदोक्त पद्धति से प्रतिष्ठापना होगी । आप को यदि स्वीकार नहीं था, तो पहले ही मना कर देते । किंतु अगर आप सोचते है कि ऐन मौके पर मना करने से हम मजबूर हो जाएँगे तो गलत सोच है आप की । मैं नहीं मानता की किसी एक जाति में जन्म लेने भर से ही व्यक्ति को पौरोहित्य का अधिकार मिल जाता है । किंतु भागोजीसेठ की इच्छा थी की आप ही पौरोहित्य करे । किंतु आप के बिना भी पौरोहित्य हो सकता है । यदि आप मना कर देते है तो हम सारी जातियों के सैंकडों हिंदु इस मूर्ति को अनंत करों से उठा के ‘जय देवा’ उद्घोष के साथ स्थापित करेंगे । यह ही होगी हमारी विधी । हम सहस्रों कंठों से हिंदुधर्म का जयगान करेंगे । यह ही होगा हमारा वेदघोष । और ‘भावो हि विद्यते देव:’ यह ही होगा हमारा शास्त्राधार ।’ वीर सावरकर की यह ओजस्वी वाणी सुन के मसुरकर महाराज के आश्रम के एक शिष्य तड़ाक से आगे आए । उन का नाम था वेदशास्त्रसम्पन्न गणेशशास्त्री मोडक । उन्हों ने वेदोक्त पद्धति से ही प्रतिष्ठापना की (सावरकरांच्या समाजक्रांतीचे अंतरंग, पृ. १७४) ।

पाठशालाओं में विभिन्न जाति के छात्रों के एकत्रित बैठने के बारे में भी सावरकर जी का रवैया कठोर ही रहा । उन्हों ने पहले तो सभी को प्रेमपूर्वक समझाया । किंतु जब कुछ लोग नहीं माने तो उन्हों ने कानूनी कार्यवाई की भी तैयारी दिखाई । इस विषय में सार्वजनिक जगहों पर अस्पृश्यों को भी नागरी अधिकार दिलाने वाला कानून १९२३ से ही था । जब सावरकर जी के विचारों को मानने वाले जनूभाऊ लिमये १९२८ में स्कूल बोर्ड के अध्यक्ष बने तो उन्हों ने भी पाठशालाओं में अस्पृश्यता का पालन ना करने के संबंध में आधिकारिक आदेश दिए । इस से सावरकर जी का काम और आसान हो गया । उन्हों ने १९२३ के सरकारी आदेश की सहस्रों प्रतियाँ करा के पूरे ज़िले में बाँटी । सरकारी कानून पता चलने पर लोकमत एकदम से अनुकूल होने लगा । किंतु उस का विरोध भी उतना ही हुआ । अस्पृश्य विद्यार्थियों को कई तरह के कष्ट दिए जाने लगे, उन के सामान को आग लगानी शुरू हुई, कुछ शिक्षकों ने उन्हें सिखाने से ही इनकार कर दिया (तत्रोक्त, पृ. १३२) । परिणामस्वरूप सावरकर जी ने रत्नागिरी के ज़िलाधिकारी से आवेदन किया (रत्नागिरी हिंदुमहासभा प्रतिवृत्त, १९२९) । इस में वे लिखते है, “The dogs may enter and even are welcomed and patted in the schools but the poor boys fared in the schools worse than dogs. The villagers resorted to the rowdy methods and drove away the untouchable boys from the schools and are not allowing them even to enter there as before. I humbly and most pressingly request you to set matters right in those villages as soon as possible and ask the police to take back the children of the untouchables to schools under the government protection against the physical threatening on the part of the rowdy rioters there’. सावरकर यहाँ अस्पृश्य विद्यार्थियों के लिए पुलिस सुरक्षा की माँग कर रहे है । यह पढ के सहसा ही अमरिका के लुज़ियाना प्रांत में गोरों के स्कूल में अपृथक पढने जाने वाली पहली आफ्रीकन-अमरिकन लडकी रुबी ब्रिजेस की याद आती है । उसे भी स्कूल में छोडने के लिए फ़ेडरल मार्शल्स जाया करते थे । रत्नागिरी के मामले में सचमुच पुलिस सुरक्षा दी गई या नहीं यह तो मुझे ज्ञात नहीं, किंतु इतना अवश्य कहूँगा कि अमरिका की घटना १९६० की है तो सावरकर द्वारा रत्नागिरी में की गयी पहल १९२९ की । इसी वर्ष स्कूल बोर्ड का परिपत्रक ज़िला बोर्ड ने रद्द करवा दिया । किंतु सावरकर अस्पृश्यता का पालन रोकने वाला परिपत्रक जारी करवाने में १९३४ में पुन: यशस्वी हुए ।

आप किसी भी व्यक्ति से मित्रता हुई, ऐसा कब कह सकते है । आप के सैंकडों पहचानवाले हो सकते है, दसों परिचित भी हो सकते है, किंतु घनिष्ठ मित्रता, एकरूपता तभी कही जा सकती है, जब आप उन के साथ बिना किसी हिचकिचाहट के खाना खाओ । भोजन मित्रता का संकेत है । यह बात सावरकर बहुत ही अच्छी तरह से जानते थे । उन दिनों जहाँ अपने से तथाकथित निम्न जाति के व्यक्ति के साथ भोजन करना भी पाप माना जाता था, सावरकर जी ने कल्पना निकाली सहभोजन की । सभी जाति के हिंदुओं का एक साथ, एक ही पंक्ति में भोजन । रोटीबंदी की इस शृंखला पे पहला प्रहार किया सावरकर की प्रेरणा से स्थापित ‘तरुण हिंदुमंडल’ने (डिसेंबर १९२९) । विभिन्न जातियों के सौ युवाओं ने एक साथ भोजन किया । यह तो था पहला पडाव, जो केवल उस मंडल के कार्यकर्ताओं तक ही सीमित था । अब समय था रोटीबंदी की शृंखला पे दूसरा प्रहार करने का, यानी प्रकट सहभोजन कराने का । अगले वर्ष पुन: एक बार सौ लोगों के सहभोजन का आयोजन हुआ । इस बार यह समारोह सभी के लिए खुला था । लेकिन कार्य सम्पन्न हो कहाँ? कोई भी कर्मठ इस समारोह के लिए जगह देने के लिए तैयार नहीं था । अंततः खातू परिवार के नाट्यगृह में व्यवस्था हुई । किंतु तब भी कई प्रश्न शेष थे । भोजन पकाएगा कौन? इस तथाकथित पापाचरण के लिए कोई भी रसोईया तैयार नहीं था । जैसे तैसे प्रबंध हुआ । लग रहा था कि कोई नहीं आएगा । किंतु ऐन मौके पर इतनी भीड हुई कि कईयों को तो समारोह में भाग लिए बिना ही वापिस लौटना पडा (सावरकरांच्या समाजक्रांतीचे अंतरंग, पृ. १८९) ।

सावरकर जी ने सहभोजन में सहभागी लोगों की सूची प्रकाशित करने का नियम किया था । पहले सहभोजन के पश्चात कईयों को इस बात के परिणाम, सामाजिक बहिष्कार आदि स्वरूपों में भुगतने पडे । लेकिन सावरकर जी द्वारा दिखाई दृढता के पश्चात धीरे धीरे वातावरण सकारात्मक होता गया । पहले सहभोजन की खबर देते हुए ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ लिखता है (०९/१२/१९३०), ‘जातिव्यवस्था ही हिंदु धर्म की अवनती का मूल कारण है ऐसा मानने वाले कुछ उत्साही सुधारकों द्वारा सहभोजन का आयोजन किया गया था । इस में सभी जातियों के लोगों ने भाग लिया’ । आगे चल के सावरकर जी ने इन समारोहों को किसी पवित्र धार्मिक कार्य जैसा स्वरूप दिया । इतना ही नहीं उन्हों ने किसी भी धार्मिक विधी से पहले जैसे संकल्प किया जाता है, वैसा ही संकल्प भी सहभोजन के लिए रचा, ‘जन्मजातजातिभेदोच्छेदनार्थम् अखिलं हिंदुसहभोजनं करिष्ये’ (रत्नागिरी हिंदुसभेचे प्रतिवृत्त, खंड २, १९३७) ।

सावरकर जैसे स्वीकार्य रूप से सकारात्मक कार्य करना जानते थे, वैसे ही नकारात्मक विचारों को उन्हीं की भाषा में उत्तर देना भी जानते थे । एक बार एक महाशय ने सहभोजन समारोहों की आलोचना करते हुए कहा कि, ‘एक दूसरे के मुँह में थूकने से भी क्या प्रेम बढता है’? सावरकर जी ने तपाक से उत्तर दिया था कि, ‘आप जब ब्राह्मणभोज कराते है तब क्या एक दूसरे के मुँह में थूकते है’? सावरकर जानेमाने व्यक्ति होने के कारण, अनेकों विवाहादि समारोहों में उन्हें आमंत्रित किया जाता । वे भी प्रेमपूर्वक जाते । किंतु वे यजमानों को सुझाव देते कि, कार्यक्रम में सहभोजन हो । और अधिकतर लोग तैयार भी हो जाते । सावरकर जानते थे कि क्या स्पृश्य क्या अस्पृश्य, दोनों ही जिस चीज़ को धर्म मानते थे उस का निष्ठापूर्वक आचरण करते थे । इसीलिए उन्हों ने किसी का भी द्वेष न करते हुए जहाँ तक हो सके युक्तिवाद से अपनी बात मनवाना सही समझा । आज कल के कुछ धर्मसुधारक गलत रूढीयों का अनुसरण करने वालों को मूर्ख कहते है, तरह तरह के अपशब्द कहते है । इस से आप की विद्वत्ता नहीं सिद्ध होती, बल्कि कार्य की हानि ही होती है । अपशब्द वह कहता है जिसे अपने विचारों पे विश्वास न हो, जो विश्वास से भरा हुआ होता है, वह तो सरल भाषा में भी अपनी बात रख सकता है । सावरकर जी के प्रयत्नों से धीरे धीरे स्त्रीवर्ग भी सहभोजनों में सहभागी होने लगा (२१/०९/१९३१) ।

वीर सावरकर के सहकारी तथा ‘सत्यशोधक’ पत्रिका के संपादक थे श्री. दत्तोपंत लिमये । उन की सुपुत्री का विवाह निश्चित हुआ । किंतु जब ससुराल वालों को पता चला कि लिमये जी सहभोजनी है, तो उन्हों ने विरोध दर्शाया । कहा कि जब तक लिमये जी प्रायश्चित नहीं लेते, विवाह नहीं होगा । एक तरफ बेटी का भविष्य तो दूसरी तरफ तत्त्वनिष्ठा । लिमये जी धर्मसंकट में पड गए । यह विषय सावरकर जी के समक्ष आया । तो उन्हों ने एक झटके से उन्हें प्रायश्चित लेने की अनुज्ञा दे दी और साथ ही साथ ससुराल वालों को यह भी कहा कि यह प्रायश्चित केवल विवाह तक ही सीमित रहेगा । वे मान गए । यहाँ विवाह सम्पन्न हुआ और वहाँ लिमये जी सहभोजन में पुनः जुट गए (तत्रोक्त) । सावरकर जी की यशस्विता का रहस्य उन के ऐसे व्यावहारिक तथा अनूठे मार्ग ही है । वे खुद समुद्रमार्ग से ही विदेश गए थे, लेकिन वापिस लौटने पर उन्हों ने प्रायश्चित नहीं लिया । ऐसे ही उन्हों ने शुद्धीकरण किए, बेटीबंदी तोडी, व्यवसायबंदी तोडी । १ मई १९३३ को उन्हों ने ‘अखिल हिंदु होटल’ शुरू किया जिसे चलाने वालों में से एक युवक दलित था । वहाँ भोजन करने वालों के हस्ताक्षर ले के उस की सूची रखी जाती थी । सावरकर जी के स्वीय सहायक श्री. बाळाराव सावरकर के अनुसार सावरकर जी के पास ऐसे सवा तीनसौ से अधिक हस्ताक्षर इकठ्ठा हो गए थे (रत्नागिरी पर्व, लेखक बाळाराव सावरकर, आवृत्ति वर्ष १९७२, पृ. ३००) ।

राजर्षि छत्रपती शाहू महाराज के अनुयायी भाई माधवराव बागल जब रत्नागिरी आए तो वहाँ का वातावरण देख कर वे अवाक रह गए । उन्हों ने कहा, ‘पुणे, मुंबई जैसे बडे शहरों में भी सहभोजन के लिए ५-१० महिलाएं भी आगे नहीं आती । किंतु यहाँ सैंकडों महिलाएँ सहसा ही सहभागी होती दिखती है । वीर सावरकर यदि हमारे यहाँ होते, तो हम उन्हें सिर आँखों पे बिठा के रखते’ (सावरकरांच्या समाजक्रांतीचे अंतरंग, पृ. २१४-१५) । वीर सावरकर जी का कार्य देख कर महर्षि शिंदे बोल उठे थे (तत्रोक्त, पृ. २१५), ‘भगवान सावरकर जी को मेरी बची हुई आयु दे दे’ । दलित नेता श्री. सोनवणे के अनुसार (तत्रोक्त, पृ. २१२), ‘सहस्रों वर्षों से स्पृश्यों ने हमें दूर रखा, किंतु यह भेद भी नष्ट हो सकता है यह विश्वास, सावरकर जी के कार्य को देख कर होता है ‘ । वीर सावरकर जी ने भारतरत्न डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी को भी इस कार्य का अवलोकन करने हेतु निमंत्रित किया था । सावरकर, आंबेडकर जी को लिखे पत्र में लिखते है, ‘यह निमंत्रण किसी तात्त्विक चर्चा हेतु नहीं, अपितु जातिभेद नष्ट करने के लिए हिंदु समाज प्रत्यक्ष क्या क्या कार्य करना चाहता है इस बात का सक्रिय उदाहरण देने के लिए है ।’ सावरकर चाहते थे कि आंबेडकर जी की अध्यक्षता में सहस्रावधी पूर्वास्पृश्यों का सहभोजन हो व तत्पश्चात आंबेडकर जी मार्गदर्शन करे । किंतु आंबेडकर जी की कार्यमग्नता के चलते यह समारोह हो न सका । नाशिक के काळाराम मंदिर सत्याग्रह के दौरान सावरकर जी स्थलबद्ध थे । उन्हों ने तब भी आंबेडकर जी का समर्थन करने हेतु एक पत्र नाशिक के हिंदुओं के नाम लिखा था । सावरकर जी के अनुज डॉ. नारायणराव सावरकर उस समय अपने सहकारीयों के साथ नाशिक में उपस्थित थे तथा उन्हों ने मंदिरप्रवेश के लिए अनुकूल वातावरण बनाने का प्रयास भी किया था (तत्रोक्त, पृ. ११४) ।

सावरकर जी का अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक एकता का कार्य एक यशस्विता की गाथा है । १९२४ से ले कर १९३७ तक के स्थलबद्धता के काल में उन्हों ने रत्नागिरी ज़िला व आसपास के परिसर से अस्पृश्यता का समूल उच्चाटन कर दिया था । आगे चल के भी उन की हिंदुमहासभा के माध्यम से की गई राजनीति जातिगत भेदभावों से उपर उठ कर संपूर्ण समाज के लिए ही थी । आज भले ही अस्पृश्यता कानूनी रूप से नष्ट हो चुकी हो, किंतु जातिवाद के रूप में वह कुछ लोगों के मन में आज भी जीवित है । नए युग में पुनः विश्वगुरू बनने की चाह रखने वाले देश के लिए यह जातिभेद कितनी बडी बाधा है, कोई भी अनुमान लगा सकता है । ऐसे समय में सावरकर जी के विचारों की, उन के द्वारा चुने अभिनव मार्गों की पहले से भी अधिक आवश्यकता आन पडी है । समय की माँग है कि हम उस मार्ग पर पूरी प्रामाणिकता के साथ चले । सावरकर जी द्वारा किया गया कार्य स्वयं प्रकाश बन के पथ दिखलाएगा ।

— © अॅड. विक्रम श्रीराम एडके,
(सावरकर जी के चरित्र एवं विचारों के अभ्यासक तथा उन से संबंधित विषयों पर व्याख्यान देने वाले वक्ता ।)

*लेख वडोदरा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड विश्वविद्यालय के इन्स्टिट्यूट ऑफ लिडरशिप अैंड गवर्नंस द्वारा प्रकाशित ‘वीर सावरकर स्वतंत्रता एवं अखंडता के साधक’ में पूर्वप्रकाशित

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