" जब तक हैं जान "

” जब तक हैं जान “
बरखा की छींटें तेरे रुखसारोंपर,
जैसे ओस आ थमी हो गुलजारोंपर..
देखके धडकने कुछ यूँ तेज हुई हैं,
के सुन नहीं पा रहा तेरे लब्जोंके गुलफामोंको..
मानो जैसे सुर्ख होठोंसे खामोशी ही खामोशी छलक रही हो..!

पूछा तुमने, चुपचाप हो क्यूँ..
कैसे समझाऊ मैं तुम्हे, बस इतना समझ लो..
आगोशमें भरके सुनना चाहता हूँ मैं ये मस्तानी खामोशी तेरी..
 
जब तक हैं जान, जब तक हैं जान..!!

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