समयके मुडे पन्नोंपर..!
भोर मल रही थी आँखे उस वक़्त
और रात बस सोनेही वाली थी
परसोंकी तरह उसकी खिडकी
कल और आज भी खाली थी
वो खिडक़ी चार आँखोंके
जहा रोज़ पेंच लडा करते थे
उडते अरबी घोडें जहापर
पैनी नज़रोंसे अडा करते थे
वो पानी डालती थी तुलसी को तो
प्यास मुसाफिरको लग जाती थी
ताज़ा नहाये बाल झटकाती वो
सैंकडों बारिशें छूट जाती थी
वो झुका लेती थी फिर पल्कें जब
वो आँखोंसे सलाम अद़ा करता
साथ चलनेका तो ना सही कभी
हाँ, पर निभानेका वादा करता
फिर जाने लगता था जब वो, वो
नज़रोंके ताबीज़ बुना करती थी
उससे गुज़रते झौंकोंसे बराबर
वो ख़ुदा-हाफिज़ सुना करती थी
पूछताछ की तो पता चला वो
कलही पड़ोस गाँवमें ब्याही हैं
हाथोंमें सजायी होगी जो मेहंदी
इक वोही जानता था की स्याही हैं
फिर कभी ना दीदार हुआ उसका
ना कोई खबरभी उडके आयी थी
विसालकी तो नहीं थी चाहत पर
किसीने एक लौ ज़रूर बुझायी थी
बीतते चले गये थे कई महीने
ज़िंदगीभी आगे बढ गयी थी
समयके मुड़े पन्नोंपर लेकीन
एक झुर्रीसी ही पड गयी थी
कल फिर वहासे गुज़रना हुआ उसका
कल फिर उसने वहा नज़र डाली थी
भोर मल रही थी आँखें उस वक़्त
और रात, रात बस सोनेही वाली थी
— © विक्रम श्रीराम एडके.
(www.vikramedke.com)
नमस्कार एडके जी. खुपच मस्त लिहीले आहे हे काव्य. 🙂