जिंदगीकी ढलानपे सुलगती दिवानगी पीछे छोड दी हैं मैंने कहीं मेरे जलते, सुलगते ख्वाब पिघला ही न दें इस ढलान को, वो मुझे रौंदनेसे पहले! या फिर मैं ही न कुचल दूँ इस ढलानको नझ्मोंके बोझसे.. जिंदगीकी ढलानपे सुलगती दिवानगी पीछे छोड दी हैं मैंने..! के यकीं नहीं मुझे मैं टूँट जाऊँगा अबकी बार, डर इस बातका हैं की गिरनेके बाद फिर कोई नई ढलान तो मेरा इंतजार नहीं कर रही होगी? डर गिरनेका नहीं, डर टूटनेका नहीं, डर इस “गिरते रहने”से लगता हैं.. जिंदगीकी ढलानपे सुलगती दिवानगी पीछे छोड दी हैं मैंने..! – © विक्रम.
Category Archives: Poetry
" ते…. "
जेव्हा तुम्ही-आम्ही घालत असतो आपल्या कुजलेल्या दु:खाचे लोणचे, तेव्हा ‘ते’ आशेचे अंकुर पेरत असतात.. जेव्हा तुम्ही-आम्ही ढाळत असतो वांझोटे अश्रू, तेव्हा ते कष्टाच्या जमिनीवर घामाचं सिंचन करत असतात..! आपल्याला अंधारात दिसतो बागुलबुवा, अन् ‘ते’ आशेच्या किरणांना खेचत असतात.. दिवस सरतात, काळ जातो, तुम्ही-आम्ही उचलत राहातो आयुष्याचे तेच जुने ओझे, अन् तेव्हा ‘ते’ यशोशिखरावर स्वार झालेले असतात.. आपण बुजगावण्यासारखं जगतो, मरून जातो, तेव्हा ‘ते’ अमर झालेले असतात.. असे कसे? कारण… जेव्हा तुम्ही-आम्ही बडवत असतो परिस्थितीचा पोकळ ऊर, तेव्हा ‘ते’ स्वप्नांची धारदार शस्त्रे करून मैदानात उतरलेले असतात.. आणि कदाचित म्हणूनच ‘ते’ सामान्य असूनही असामान्य ठरत असतात.. – © विक्रम.
याद हैं वोह हमारी पहली मुलाक़ात की रात..?
याद हैं वोह हमारी पहली मुलाक़ात की रात? हमारी दोस्तीका मोती तुमने अपनी नर्म पल्कोंपे तोला था.. शायद धनकमें कुछ और रंग जुड़ गए होंगे उस रात, या फिर यूँ कहो की ज़िन्दगी के रेगिस्तांमें बरसात हुई थी पहली बार.. एक रात वोह भी तो थी, जब हमने सारी दुनियादारीको लात मारके कहकहे लगाए थे! लगा था जैसे वक़्त के पन्नोंपे किसीने पेपरवेट रख दिया हो! ‘यारी-दोस्ती और बात हैं, तो दुनियादारी कुछ और’ बात ये समझके भी नहीं समझना चाहते थे उस रात हम तीनों.. कल को एक रात वो भी तो आएगी.. की जब तुम चली जाओगी.. हम …Read more »
जी करता हैं…
जी करता हैं, गुलाल बन जाऊँ.. चीखता-चिल्लाता बवाल बन जाऊँ..! दूरीयों, मजबूरीयोंसे अलग.. उन रेशमी हाथोंका रुमाल बन जाऊँ..! जिंदगी क्यूँ सिखाए मुझे उसके मायने.. आज खुद जवाब, खुद सवाल बन जाऊँ..! पीछे घनी धुंध, आगे गहरा कुऑं.. डर को डरानेवाली मिसाल बन जाऊँ..! कभी किशन बन बन्सी बजाऊं.. कभी गाय, तो कभी गोपाल बन जाऊँ..! हो जाऊँ आज मैं परोंसे भी हलका.. मस्तीमें उडता खयाल बन जाऊँ..! आखिर कब तक उठाए गैरोंके बोझ.. आज खुद के बोझ का हमाल बन जाऊँ..! जी करता हैं.. जी करता हैं..! – © विक्रम.
" जब तक हैं जान "
” जब तक हैं जान “ बरखा की छींटें तेरे रुखसारोंपर, जैसे ओस आ थमी हो गुलजारोंपर.. देखके धडकने कुछ यूँ तेज हुई हैं, के सुन नहीं पा रहा तेरे लब्जोंके गुलफामोंको.. मानो जैसे सुर्ख होठोंसे खामोशी ही खामोशी छलक रही हो..!पूछा तुमने, चुपचाप हो क्यूँ.. कैसे समझाऊ मैं तुम्हे, बस इतना समझ लो.. आगोशमें भरके सुनना चाहता हूँ मैं ये मस्तानी खामोशी तेरी.. जब तक हैं जान, जब तक हैं जान..!!
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